नई दिल्ली. दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला है. अरविंद केजरीवाल ने रविवार को तिमारपुर विधानसभा सीट पर मनीष सिसोदिया के प्रचार के दौरान कहा, ‘मैं बनिया का बेटा हूं और मुझे हिसाब करना आता है.’ दिल्ली चुनाव में बीजेपी नेता ‘आप’ के मुफ्त रेवड़ियां बांटने के ऐलान पर केजरीवाल से लगातार सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर इसके लिए पैसे कहां से आएंगे? इसी का जवाब केजरीवाल ने इनडायरेक्ट रूप से जाति कार्ड खेल दे दिया. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या दिल्ली चुनाव में बनिया वाला कार्ड खेलकर केजरीवाल भी लालू यादव और मुलायम सिंह यादव की राह पकड़ ली?
दरअसल, राजनीति में आने के बाद 12-13 साल बाद केजरीवाल को भी जाति की राजनीति का अर्थ समझ में आने लगा है. केजरीवाल भी यूपी-बिहार की तरह अब दिल्ली में भी ‘वोट और बेटी जात को’ देने वाली बात दिल्ली की राजनीति में आजमाना शुरू कर दिया है. वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडेय कहते हैं, ‘अरविंद केजरीवाल ब्रिटिश एनवायरनमेंट में पले-बढ़े या राजनीति करने वाले नेता नहीं हैं. जहां पर गरीबी, बेरोजगारी, हेल्थ, भूखमरी और एजुकेशन पर बात होती है. केजरीवाल पूरी तरह से साउथ-एशियन डेमोक्रेसी की तरह राजनीति करें तो इसमें अब कोई दो राय नहीं होनी चाहिए. भारत में राजनीति कास्ट और रिलिजन से अलग हो नहीं सकती है. ये कोई नई फेनोमिना नहीं है और न ही लालू यादव और मुलायाम सिंह यादव की है.’
केजरीवाल ने क्यों खेला दिल्ली चुनाव में कास्ट पॉलिटिक्स?
पांडेय कहते हैं, ‘ भारत में जाति पॉलिटिक्स साल 1950 से ही शुरू है. कुछ लोग छुपकर करते थे तो कुछ लोग खुलेआम करते थे. कई सोशलिस्ट और कांग्रेसी नेता बोलते नहीं थे, लेकिन कास्ट की राजनीति खूब करते थे. कांग्रेस और सोशलिस्ट नेता भी हिंदुत्व और सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति करते थे. उदाहरण के लिए सोशलिस्ट नेता चंद्रशेखर जैसे नेता कास्ट की बात खुलेआम कभी नहीं की. लेकिन, उनकी पहचान देश में बड़े राजपूत नेता के तौर पर थी. ये भारत के इतिहास में औऱ साउथ इंडियन डेमोक्रेसी यहां तक की पाकिस्तान में भी यही परंपरा चली आ रही है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इसी तरह की पॉलिटिक्स होती है, जहां पर इस्लाम का बोलबाला है. वहां पर भी वोटिंग पैटर्न और नेता अपने डायलॉग के दौरान कास्ट पॉलिटिक्स कर प्रभावित जरूर करते हैं.’
जानकार बताते हैं कि बिहार और यूपी में एक नारा हुआ करता था ‘वोट और बेटी जात को’. यूपी-बिहार में बेटी और वोट जात को देने की बात सामने आई तो यह परंपरा पूरे देश में फैल गई. ऐसे में अरविंद केजरीवाल भी उसी परंपरा से निकले हैं. अरविंद केजरीवाल इससे कैसे बच सकते हैं? अरविंद केजरीवाल कोई सोशल यूरोपियन सोशल डेमोक्रेट नहीं हैं, जहां पर पॉलिटिकल में इश्यूज अलग-अलग होते हैं. भारत में हर राजनेता चाहे वह बात कितना ही डेमोक्रेसी की करे और कहे भी कि हम हर जाति के नेता हैं, हम इस विरादरी के नेता नहीं हैं. हम हिंदू और मुसलमान दोनों के नेता हैं. लेकिन, व्यवहार में कहीं न कहीं उसकी प्राथमिकता कास्ट हो जाती है.