जश्न-ए-आजादी का दौर चल रहा है. पूरा देश 15 अगस्त, स्वतंत्रता दिवस के रंग में रंगा हुआ है. स्कूल-कॉलेजों में देशभक्ति के गीत गूंज रहे हैं, बच्चे क्रांतिकारियों की वेशभूषा में सजे नई ऊर्जा और जोश में दिखलाई दे रहे हैं. इस समय पूरा माहौल देशभक्तिमय हो रखा है. जब भी देशभक्ति की बात आती है तो होंठों पर अनायास ही ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है’ गीत थिरकने लगता है. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में न जाने कितने ही मतवाले ‘सरफरोशी की तमन्ना’ की गाते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए और ना जाने कितने ही अंग्रेजों की गोलियों से छलनी हो गए.
आज भी जब हम ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गीत को पूरे जोश-खरोश से गाते हैं. लोग इसे अमर क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ द्वारा रचित देशभक्ति गीत बताते हैं. पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ को महज 30 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी थी. राम प्रसाद क्रांतिकारी होने के साथ-साथ एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार और साहित्यकार भी थे. बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस यानी उपनाम था जिसका अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत. वे बिस्मिल नाम से कविताएं लिखते थे. उन्होंने राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कविताएं लिखीं.
ज्यादातर लोग ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गीत को राम प्रसाद बिस्मिल की ही रचना बताते हैं लेकिन यह सही नहीं है. हकीकत में यह रचना अज़ीमाबाद यानी अब पटना के मशहूर शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की है. कुछ सरकारी और गैर सरकारी रिकॉर्ड में भी यह रचना रामप्रसाद बिस्मिल के नाम पर ही दर्ज है. सोशल मीडिया और गूगल में इस रचना के लेखक के रूप में राम प्रसाद बिस्मिल का नाम दर्ज है.
बिस्मिल अज़ीमाबादी ने युवाओं में देश की आजादी के प्रति जोश भरने के लिए यह देशभक्ति ग़ज़ल लिखी थी. यह रचना इतनी मशहूर हुई कि यह क्रांतिकारियों का मंत्र बन गई थी.
बिस्मिल अज़ीमाबादी
बिस्मिल अज़िमाबादी का जन्म 1901 में बिहार के पटना में हुआ था. वे उर्दू के मशहूर शायर थे. बिस्मिल अज़ीमाबादी ने 1921 में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ नामक देशभक्ति कविता लिखी थी. यह मूल रूप से उर्दू में लिखी गई थी. उन्होंने इसे आजादी की लड़ाई के मतवालों के लिए यह गीत लिखा था. यह गीत पूरी तरह इस प्रकार है-
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना, बाजु-ए-कातिल में है
करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल में है
ऐ शहीदे-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफिल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर
खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में है
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
हाथ, जिन में हो जुनूं, कटते नहीं तलवार से;
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोला, सा हमारे दिल में है;
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
हम तो निकले ही थे घर से, बांधकर सर पे कफन
जान हथेली पर लिए लो, बढ़ चले हैं ये कदम
जिंदगी तो अपनी महमान, मौत की महफिल में है
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
यूं खड़ा मक़्तल में कातिल, कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है
दिल में तूफानों की टोली और नसों में इन्कलाब
होश दुश्मन के उड़ा, देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहां मंजिल में है
वह जिस्म भी क्या जिस्म है, जिसमें न हो खून-ए-जुनूं;
तूफानों से क्या लड़े जो, कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना, बाजु-ए-कातिल में है।
बिस्मिल अज़ीमाबादी ने जलियांवाला बाग नरसंहार और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के अत्याचारों के बाद 1921 में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ कविता लिखी थी. यह कविता पहली बार दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका “सबाह” (Sabah) में प्रकाशित हुई थी. पटना की खुदा बख्श लाइब्रेरी में बिस्मिल अज़ीमाबादी की जिस डायरी में यह कविता लिखी हुई है, की मूल प्रति को सुरक्षित रखा गया है.