नालंदा. ये नालंदा का बड़गांव है. मुख्य नालंदा से महज 2 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित इस गांव को अब नगर पंचायत का दर्जा प्राप्त है. माना जाता है कि लोक आस्था के महापर्व छठ की शुरुआत इसी जगह से हुई थी. इससे पहले कि हम इसके उद्गम कहानी का वर्णन करें. आप ये जान लीजिए कि यहां छठ पर्व की शुरुआत 49 दिन पूर्व से ही हो जाती है.
क्या है 49 दिनों की कहानी
स्थानीय और पंडित बताते हैं कि भगवान कृष्ण के पौत्र राजा शांब को कुष्ठ रोग था. उसी दौरान वो यात्रा पर निकले हुए थे,प्यास लगी तो अपने चाकर को बुलाया और जल लाने का आदेश दिया. चाकर समूचा इलाका छान आया लेकिन कहीं जल नहीं मिला. थोड़ी दूर और आगे जाने पर उसे एक वाराह (सूअर) हल्के गड्ढे में लोटपोट करते नजर आया. अब चाकर सोच में पड़ गया कि राजा के लिए क्या ये पानी पीने योग्य है? लेकिन आज्ञा की अवेहलना भी नहीं की जा सकती थी, लिहाजा उसने जल पात्र में जल लेकर राजा को समर्पित कर दिया. राजा शांब प्यासे थे उन्होंने जल ग्रहण किया तत्पश्चात उनके कुष्ठ रोग ठीक होने लगा.
राजा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए चाकर से जल का स्थान पूछा. फिर चाकर की बताए जगह पर गए और वहां खुदाई कर जलाशय बनाया. चूंकि सूर्य को शरीर का देवता माना गया है इसलिए उन्होंने जलाशय में डुबकी लगाकर सूर्य को अर्घ्य समर्पित किया. इसके बाद सूर्यदेव प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा शांब को 49 दिनों तक विधि विधान से पूजा करने की सलाह दी ताकि उनका कुष्ठ रोग पूर्णतः ठीक हो जाए. यहीं से 49 दिनों की परम्परा चलन में आई
शास्त्र में इसका जिक्र किया गया है कि भगवान ब्रह्मा के पुत्र सूर्य हैं और पुत्री सविता हैं, जिन्हें दुर्गा के छठे रूप और छठी मईया के नाम से जाना जाता है. चूंकि सूर्य और सविता में घनिष्ठ संबंध होने के कारण इस तालाब की खुदाई पर राजा शांब को मिली सूर्य और सविता की प्रतिमा के कारण माता सविता की पूजा अर्चना भी शांब ने शुरु की थी. छठी मईया को संतान सुख एवं बेहतर जीवन और भगवान सूर्य को निरोगी काया देने वाले के रूप में जाना जाता है. इसलिए छठ पर्व के दौरान लोग दोनों की उपासना करते हैं
ऑफ कैमरा स्थानीय पण्डित ललन पांडे बताते हैं कि यहां पहले सुअरों की संख्या अधिक थी. इसलिए इस स्थल को वाराह कहा जाता था. चूंकि यहां वर के वृक्ष भी पाए जाते थे. लिहाजा समय के साथ इसके शाब्दिक महत्व बदलते गए. बस्तियां बसती गई और लोगों ने नामांतरण प्रारंभ कर दिया. फिलहाल इसे सैकड़ों वर्षों से बड़गांव के नाम से जाना जाता है. जबकि सूर्यपुराण और अन्य धर्म ग्रंथों में इस स्थल को वाराह की संज्ञा दी गई है.
क्या है 49 दिनों का विधि विधान
पंडित देवानंद पांडे के मुताबिक यहां 49 दिनों के पूजन विधि विधान के लिए लोगों का मौजूद होना बेहद जरूरी है, हालांकि उनकी गैर मौजूदगी में भी पंडित पूजा हवन करते हैं. वैसे तो साल भर यह 49 दिनों की पद्धति काम आती है लेकिन छठ पर्व से ठीक एक महीना 19 दिन पहले पूजा अर्चना करने से कुष्ठ रोगियों को विशेष लाभ होता है. इस दौरान खाने-पीने से संबंधित कई चीजों पर पाबंदी होती है. शुद्ध शाकाहारी भोजन करना होता है, रोज स्नान करना होता है एवं स्वच्छता के साथ जीवन यापन करना होता है. साथ ही छठ पर्व के दौरान पास में स्थित सूर्य मंदिर से यहां तक दंडवत आना भी होता है!