पटना. बिहार सरकार ने अपने संसाधनों के बल पर फरवरी 2023 तक 14 करोड़ जातियों के आधार पर लोगों को गिनने के मसौदे पर अपनी मंजूरी दे दी है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में गुरुवार (2 जून, 2022) को आयोजित हुई कैबिनेट की बैठक में इस प्रस्ताव पर मुहर लगाई गई. जातिगत गणना के साथ-साथ आर्थिक गणना भी करवाई जाएगी. बिहार के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी ने नीतीश सरकार के फैसले की जानकारी देते हुए बताया कि बिहार सरकार ने अपने संसाधनों से जाति आधारित गणना कराने के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया है. जाति आधारित जनगणना कराने की जिम्मेवारी सामान्य प्रशासन विभाग को सौंपी गई है.
मुख्य सचिव आमिर सुबहानी ने जानकारी दी कि जिलों में जाति आधारित गणना की जवाबदेही जिलाधिकारी को सौंपी गई है; जो नोडल पदाधिकारी होंगे. जिलों में गणना कराने की सारी जवाबदेही जिलाधिकारी पर रहेगी. सामान्य प्रशासन विभाग और जिला अधिकारी ग्राम, पंचायत और उच्चतर स्तरों पर विभिन्न विभागों के अधीनस्थ काम करने वाले कर्मियों की सेवाएं जाति आधारित गणना का कार्य कराने के लिए ले सकेंगे. गणना पर करीब 500 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे. बिहार आकस्मिकता निधि से यह राशि खर्च की जानी है. फरवरी 2023 तक गणना का काम पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.
जाति आधारित जनगणना से ये होंगे फायदे
बिहार में जाति आधारित जनगणना के साथ-साथ लोगों की आर्थिक हैसियत का भी अंदाजा लगाया जाएगा. जाति आधारित गणना की प्रगति से समय-समय पर विधानसभा के विभिन्न दलों के नेताओं को जानकारी दिए जाने की व्यवस्था होगी. समय-समय पर मीडिया को जाति आधारित गणना के बारे में की जा रही कार्रवाई की जानकारी दी जाएगी. जाति गणना कराने से राजकीय विभिन्न जातियों की स्थिति ठीक ठाक आंकड़ा उपलब्ध हो सकेगा. इसके विभिन्न जातियों को समुचित विकास के लिए योजना तैयार कर उसके क्रियान्वयन में सुविधा मिल सकेगी.
कई मिथकों को तोड़ेगी जाति आधारित जनगणना
जातीय गणना के पीछे कई तर्क दिए जा रहे हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की माने तो समाज कल्याण और विकास की योजनाओं का वास्तविक लाभ वंचित वर्ग तक पहुंचाने के मकसद से जातीय गणना करना जरूरी है. साथ ही योजनाओं की दशा और दिशा नए सिरे से तय करने के लिए भी जातीय जनगणना करवानी जरूरी है. जातीय गणना के आंकड़े नीतियों कार्यक्रमों की दशा और दिशा बदलने के बड़े आधार बनेंगे. दावा किया जा रहा है कि जातीय जनगणना की उपलब्धि कई मिथकों को भी तोड़ेगी.
वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचेंगे योजनाओं के लाभ
दावा इस बात का भी है कि रजिस्ट्रार जनरल का यह तर्क कमजोर करेगा कि आज बहुत लोग संप्रदाय, गोत्र, उपजाति और जाति का नाम बतौर सरनेम लिखते हैं. उच्चारण में भी समानता है, जिससे जातियों के वर्गीकरण में कई समस्याएं होंगी. आरक्षण का मौजूदा सिद्धांत जातियों की जनसंख्या पर आधारित है. अनुसूचित जाति जनजाति की गणना 1931 से हो रही है और इसी हिसाब से इनके लिए आरक्षण तय होता रहा है. लेकिन पिछड़ी जातियों का आरक्षण 1931 पर ही आधारित है, ऐसे में जातीय जनगणना पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए नया आयाम पुनर्स्थापित कर सकती है.
जातीय जनगणना पर बिहार में कर्नाटक मॉडल का जिक्र
जातीय जनगणना को लेकर कर्नाटक मॉडल का जिक्र होता रहा है. कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार ने 2014 में जातीय जनगणना शुरू की थी. इसका विरोध हुआ तो नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे किया गया था. वर्ष 2017 में रिपोर्ट आई, लेकिन यह आज तक सार्वजनिक नहीं हुई. इसकी वजह मानी जा रही है कि इसमें 195 से अधिक नहीं जातियां सामने आ गईं.
वर्ष 1931 की जातीय जनगणना पर बनती हैं योजनाएं
बता दें कि देश में सबसे पहले जातीय जनगणना 1931 में कराई गई थी. 1944 में भी डाटा एकत्र किया गया था, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया. वर्ष 2011 में जातीय और समाजिक, आर्थिक गणना की गई थी; मगर इसमें कई तरह की विसंगतियां सामने आ गई थीं जिसके चलते आंकड़े जारी ही नहीं किये गए.