फिल्म समीक्षक पत्रकार विशाल ठाकुर के शब्दो में ,दिलीप कुमार पिछले कई दिनों से मुंबई में खार स्थित हिन्दुजा अस्पताल में भर्ती थे. दो दिन पहले उनकी पत्नी सायरा बानो ने खबर दी थी कि वह जल्द अच्छे होकर घर लौटेंगे. दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर, 1922 को पेशावर, पाकिस्तान (आज के) में हुआ था. 98 वर्ष की उम्र में आज सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली. उनका असली नाम मोहम्मद यूसुफ खान था.
दिलीप कुमार यानी एक ऐसा सितारा जो किसी किंवदंती के समान था, आज जाते-जाते अपने साथ न जाने कितनी ही आंखों को नम कर गया है और पीछे न भूलने वाली न जाने कितनी ही यादें छोड़ गया है. शायद उस दिन बॉम्बे टॉकीज के दफ्तर में फिल्मकार देविका रानी ने अपने बैनर की किसी फिल्म के लिए केवल एक सितारे की खोज नहीं की थी, बल्कि एक ऐसे फनकार को खोजा था, जिसने अपने बेमिसाल अभिनय से कई पीढ़ीयों को प्रेरित किया. उन्हें मो. युसुफ खान से दिलीप कुमार बनाने वाली देविका रानी ही थीं.
ज्वार-भाटा से रूपहले पर्दे पर रखा कदम
बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘ज्वार भाटा’ (1944) से दिलीप कुमार ने रूपहले परदे पर कदम रखा था. महान फिल्मकार सत्यजीत रे से लेकर व्ही. शांताराम तक ने दिलीप कुमार की अभिनय अदायगी और विशेष शैली की प्रशंसा करते हुए क्या कुछ नहीं कहा. सत्यजीत रे ने उन्हें ‘मैथड एक्टर’ की संज्ञा दी थी. अभिनय के प्रति एक ऐसा संजीदा कलाकार, जो अपने किरदार को पूरी तरह आत्मसत कर लेता था और स्क्रीन पर खुलकर खेलता था.
इस फिल्म के एक संवाद- ‘अनारकली इधर देखो. मैं तुम्हारी आंखों में अपनी मोहब्बत का इकरार देखना चाहता हूं.’ की बदौलत उस दौर में घर-घर में साहिब-ए-आलम दिखाई देने लगे थे. कभी-कभी लगता है कि क्या वाकई उन्हें किसी ने उन्हें खोजा था या फिर फिल्मों के दरवाजे उनके लिए खुद-ब-खुद खुल गये थे
पिछले कई सालों से बीमार चल रहे थे दिलीप कुमारपिछले कई वर्षों से वह बीमार चल रहे थे. सांस और सीने में तकलीफ के कारण उन्हें अक्सर अस्पताल में दाखिल कराना पड़ता था. उनकी पत्नी सायरा बानो ही उनकी पूरी देखभाल किया करती थीं. बकौल सायरा बानो- ‘इतना लंबा अरसा तक बीमार रहने के बावजूद उनके जीने के जज्बे में कोई कमी नहीं आयी थी.’ अभी कुछ महीने पहले उन्होंने पिंक कलर की शर्ट पहनकर एक फोटो अपने फैन्स के लिए सोशल मीडिया पर शेयर की थी. यह उनका पसंदीदा रंग था.
कभी-कभी ताज्जुब होता है कि आधी सदी तक सिनेमा में सक्रिय रहने के बावजूद उन्होंने बहुत ज्यादा फिल्मों में काम नहीं किया. अपने किरदारों में तरह-तरह के रंग भरने वाले दिलीप साहब को ‘ट्रेजिडि किंग’ कहा गया. संजीदा, निराश, टूटा हुआ, मगर ऊर्जा से लबरेज एक ऐसा शख्स जो बेखुदी में बस लुट जाना जानता है.
दर्शकों को लेकर दिलीप कुमार की राय
दरअसल, उनका मानना था कि एक अभिनेता को दर्शकों के सामने खुद को बहुत ज्यादा एक्सपोज नहीं करना चाहिए. इसलिए वह किसी फिल्म में अपना किरदार बहुत सावधानी के साथ चुनते थे और ध्यान रखते थे कि किरदारों में दोहराव न हो. मसलन, 1955 में ‘देवदास’ में उनका अभिनय एक मिसाल बन गया. फिर 1967 में आयी फिल्म ‘राम और श्याम’ में वह पहली बार डबल रोल में आये और फिल्म में उन्होंने एक्शन-कॉमेडी के शानदार रंग भरे. या फिर 1961 में आयी फिल्म ‘गंगा जमुना’ में डाकू का किरदार. ‘आन’, ‘अंदाज’ और ‘आजाद’ जैसी फिल्म के जरिए वह अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके थे.
इसके अलावा वर्ष 1991 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज से उन्हें वर्ष 1997 में नवाजा गया, जिसे लेकर उस समय काफी हो हल्ला भी हुआ था. दिलीप साहब को वर्ष 1995 में दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था, साथ ही वर्ष 1997 में सिनेमा में बहुमूल्य योगदान के लिए एनटी रामाराव पुरस्कार भी प्रदान किया गया था.