जयपुर में आयोजित राजपूतों के महाकुंभ से खुद को राजपूतो की बेटी कहने वसुंधरा राजे गायब रही है अब इसके मायने राजनितिक विश्लेषक अलग ही मान रहे है,क्षत्रिय युवक संघ की रैली के मंच पर राजस्थान की सियासत में दिग्गज राजपूत नेता मंच पर थे. राजस्थान बीजेपी के प्रमुख दिग्गज भी थे लेकिन राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधराराजे इस क्षत्रिय रैली के मंच पर नहीं थीं. संघ की रैली में लंबे समय बाद पहली बार राजे नदारद रहीं. राजे की गैर मौजूदगी से सियासी गलियारों में चर्चा गर्म है. चर्चा इसलिए कि क्या राजे को रैली में बुलाया नहीं गया था या फिर वह आई नहीं. रैली के मंच पर बीजेपी में राजे विरोधी गुट से केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, उप नेता विपक्ष राजेंद्र राठौड़ और राजसमंद से सांसद दीयाकुमारी थीं लेकिन राजे नजर नहीं आईं. सवाल ये कि क्या आयोजक शेखावत, दीयाकुमारी और राठौड़ को मंच पर जगह देकर और राजे को न बुलाकर कोई खास सियासी संदेश राजपूत समुदाय को देना चाहते थे.
वसुंधरा राजे खुद को राजपूत की बेटी मानती आई हैं. राजस्थान की सियासत में राजे के राजपूतों के समर्थन की डोर अब तक क्षत्रिय युवक संघ के जरिये ही जुड़ी थी. राजे इससे पहले क्षत्रिय युवक संघ की रैली और कार्यक्रमों में शामिल होती रही हैं. राजे ने 2008 में जयपुर में और 2017 में जोधपुर में क्षत्रिय युवक संघ की रैलियों में भाग लिया था. वसुंधरा का क्षत्रिय युवक संघ के वर्तमान सरंक्षक और पूर्व संघचालक भगवान सिंह रोलसाहबकर से नजदीकी रिश्ता रहा है
राजस्थान में जब वसुंधरा राजे को बतौर मुख्यमंत्री बीजेपी ने पहली बार 2003 में प्रोजेक्ट किया था तब राजे के सामने चुन्नौती बन गया था सामाजिक न्याय मंच जिसकी अगवाई दो राजपूत नेता देवी सिंह भाटी औऱ लोकेंद्र सिंह कालवी कर रहे थे. राजपूतों समेत अगड़ी जातियों को ओबीसी में आरक्षण की मांग को लेकर इस आंदोलन ने राज्यभर में आग पकड़ी ली थी. तब राजे के सामने राजपूतों को साधना और इस आंदोलन से निपटना सबसे बड़ी चुनौती था.
सीएम कुर्सी और राजे के बीच ये आंदोलन दीवार सा बनता जा रहा था. उस वक्त राजे का मददगार बना क्षत्रिय युवक संघ और इस संघ का राजनीतिक प्रकल्प प्रताप फाउंडेशन. क्षत्रिय युवक संघ के तत्कालीन संघचालक और वर्तमान संरक्षक भगवान सिंह रोलसाहबकर राजे के लिए संकटमोचक बनकर तब उभरे. रोलसाहबकर ने राजे और राजपूतों के बीच पुल का काम किया. तब राजे औऱ रोलसहाबकर के बीच बैठकें अक्सर चर्चा में रहीं. क्षत्रिय युवक संघ के समर्थन के चलते ही 2003 के विधानसभा चुनाव में राजपूत समुदाय ने सामाजिक न्याय मंच का दामन छोड़कर बीजेपी का खुलकर समर्थन किया और बीजेपी सत्ता में आई और राजे मुख्यमंत्री बनी. तब राजपूत समुदाय में असर रखने वाले राजेंद्र राठौड़ भी खुलकर राजे के साथ खड़े थे. 2003 के विधानसभा चुनाव में राजे का नारा ‘राजपूत की बेटी, जाट की बहू और गुर्जर की समधन’ भी खासा चर्चा में रहा. तब राजपूतों के साथ जाट और गुर्जरों ने भी राजे का खुलकर समर्थन किया था. नतीजा रहा बीजेपी राजस्थान में ऐतिहासिक बहुमत से जीती थी
2008 में राजे के चुनाव हारने के बाद अरुण चतुर्वेदी को बीजेपी ने राजस्थान बीजेपी की कमान सौंपी थी. तब बीजेपी राजस्थान में राजे के विकल्प की तलाश कर रही थी लेकिन 2013 के विधासनभा चुनाव से पहले राजे ने फिर राज्य में पार्टी की कमान के लिए जिन संगठनों और सामाजिक नेताओं की मदद ली उनमें सबसे बड़ा नाम था प्रताप फाउंडेशन का. फाउंडेशन के प्रमुख भगवान सिंह रोलसाहबकर राजे की वापसी के लिए पैरवी करने दिल्ली पहुंच गए थे. दिल्ली में संघ और बीजेपी में अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया था. कई वजहों से राजे को फिर 2013 के विधानसनभा चुनाव से पहले पार्टी कमान मिल गई थी. 2013 के विधासनभा चुनाव में भी क्षत्रिय संघ के जरिये वसुंधरा राजे राजपूतों का चुनाव में समर्थन हासिल करने में सफल रही थीं.
क्षत्रिय युवक संघ और वसुंधरा के संबधों में ऐसे आई खटास
2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी में टिकटों के बंटवारे से पहले ये धारणा थी कि प्रताप फाउंडेशन की वसुंधरा राजे को सिफारिश बीजेपी में राजपूत समुदाय से टिकट की गांरटी है. क्षत्रिय युवक संघ और राजे के बीच संबधों में खटास की शुरुआत हुई 2015 के बाद. 2017 में जोधपुर में क्षत्रिय युवक संघ के कार्यक्रम में तत्कालीन संघ चालक भगवानि सिंह रोलसाहबकर का मंच पर ही वसुंधरा राजे को राजपूत समाज औऱ संघ की उपेक्षा को लेकर खरी खोटी सुनाना तब काफी चर्चा में रहा. उसके बाद क्षत्रिय युवक संघ और राजे के संबधों में पूरी तरह खटास आ गई. 2018 के विधानसनभा चुनाव में प्रताप फाउंडेशन की ओर से न तो राजपूत उम्मीदवारों की सूची राजे को भेजी गई थी, न ही राजे ने राजूपत समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए क्षत्रिय युवक संघ को मनाने के लिए खास मेहनत की थी. तीन विधानसभा चुनाव तक राजे के करीबी रहे राजेंद्र राठौड़ भी राजे से दूरी बना चुके थे.
महारैली में राजे को नहीं दिया गया आमंत्रण!
सूत्रों का दावा है कि क्षत्रिय युवक संघ ने 22 दिसंबर की जयपुर की महारैली में राजे को आमंत्रण ही नहीं दिया था. राजे के समर्थकों ने संघ के पदाधिकारियों से संपर्क कर दबाब भी बनाया था कि राजे को निमंत्रण दिया जाए लेकिन संघ तैयार नहीं हुआ. संघ के पदाधिकारियों ने साफ कहा कि रैली समाज के नेताओं को ही प्रमुख स्थान देंगे. राजे के लिए ये बड़ा झटका है. राजस्थान की सियासत में राजपूत समुदाय अहम किरदार निभाता है. खासकर बीजेपी में. बीजेपी के हर रणनीतिक और चुनावी फैसले राजपूतों को केंद्र में रखकर किए जाते रहे. चाहे 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले राजे के विक्ल्प की तलाश तब गजेंद्र सिंह शेखावत पर बीजेपी नेतृत्व की जा टिकी थी. शेखावत को बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाना लगभग तय था लेकिन राजे के विरोध में दिल्ली में मोर्चा खोलने के बाद फैसला बदलना पड़ा था.
राजे समर्थक मायूस
बीजेपी की चुनावी सियासत में राजपूतों की इसी अहम भूमिका के चलते क्षत्रिय युवक संघ की रैली में न सिर्फ राजपूत नेता राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के जयपुर प्रांत प्रचारक शैलेंद्र कुमार, बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, बीजेपी के प्रदेश संगठन महामंत्री चंद्रशेखर मौजूद थे. राजे समर्थक इसलिए भी मायूस थे कि जब बीजेपी संगठन और संघ के दूसरे जातियों के नेताओं को भी बुलाया तो फिर राजे को बुलाने में हर्ज क्या था. वसुंधरा राजे पिछले एक महीने से राजस्थान के दौरे कर रही हैं, जन समर्थन जुटाने की कोशिश कर रही हैं. बीजेपी नेताओं और समाजिक नेताओं के घर जाकर नब्ज टटोल रही हैं. 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले अलग अलग जातियों का समर्थन हासिल फिर बीजेपी में सीएम फेस प्रोजेक्ट करने के लिए पार्टी पर जमीनी दबाब बनाने की कोशिश कर रही हैं. इस बीच राजपूतों की रैली में राजे का न होना, उनके लिए रणनीतिक झटका हो सकता है. अब इंतजार ये रहेगा कि राजपूतों को साधने के लिए राजे तुरुप के किस इक्के का इस्तेमाल करती हैं