देश में बर्बादी का सबसे मूल कारण कहीं ना कहीं अर्थव्यवस्था की रीढ़ बैंक, और बैंकों के बढ़ते घाटे से है ,जो दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था है और लोगों के सामने महंगाई का मंजर भी बढ़ता जा रहा है, एक-एक पाई जोड़कर लोग बैंकों में रखते हैं , पर बड़े से बड़े उद्योगपतियों को बैंक कर्ज देकर मदद करते हैं ,लेकिन कुछ ही दिनों बाद खुद को कंगाल घोषित कर उद्योगपति हाथ खड़े कर देते हैं ,फिर सिलसिला शुरू होता है वसूली का ,तो कर्जमाफी का, सरकार अगर मेहरबान रहे तो लिए हुए कर्जा माफ हो जाते हैं, यानी यू कहें तो हमारी जेब का पैसा छीन कर किसी और को दे देना , और उसे भूल जाना, कुछ ऐसा ही देश में हो रहा है, मनमोहन सरकार के बाद मोदी सरकार इसमें सबसे ज्यादा अव्वल रही !
दरअसल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने एनुअल स्टैटिकल रिपोर्ट पेश की है। इसमें नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (NPA) का भी जिक्र है। RBI की रिपोर्ट कहती है बट्टे खाते में जाने के बाद भी वसूली होती रहती है 2014 से लेकर 2020 यानी मोदी के 6 सालों में NPA की कुल रकम 46 लाख करोड़ रही।
बीते दशक में 4 साल मनमोहन तो 6 साल मोदी सरकार रही। मनमोहन सरकार के आखिरी 4 साल (2011-2014) के बीच NPA की बढ़ने की दर 175% रही, जबकि मोदी सरकार के शुरुआती 4 साल में इसके बढ़ने की दर 178% रही। प्रतिशत में ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा है, लेकिन इतना जान लीजिए कि मनमोहन ने NPA को 2 लाख 64 हजार करोड़ पर छोड़ा था और मोदी राज में ये 9 लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि इससे हमें क्या? न, इस मुगालते में मत रहिए! ये मामला सीधे आपसे जुड़ा हुआ है। इसके लिए आपको NPA और इससे जुड़े आंकड़ों को इत्मिनान से समझना होगा।
अब सवाल यह है कि NPA बला क्या है?
- जब कोई व्यक्ति या संस्था किसी बैंक से लोन लेकर उसे वापस नहीं करती, तो उस लोन अकाउंट को क्लोज कर दिया जाता है। इसके बाद उसकी नियमों के तहत रिकवरी की जाती है। ज्यादातर मामलों में यह रिकवरी हो ही नहीं पाती या होती भी है तो न के बराबर। नतीजतन बैंकों का पैसा डूब जाता है और बैंक घाटे में चला जाता है। कई बार बैंक बंद होने की कगार पर पहुंच जाते हैं और ग्राहकों के अपने पैसे फंस जाते हैं। ये पैसे वापस तो मिलते हैं, लेकिन तब नहीं जब ग्राहकों को जरूरत होती है।
- PMC के साथ भी यही हुआ था, उसने HDIL नाम की एक ऐसी रियल स्टेट कंपनी को 4 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का लोन दे दिया था, जो बाद में खुद ही दिवालिया हो गई थी। लोन को देने में भी PMC ने RBI के नियमों को नजरअंदाज किया था।
नीरव और माल्या जैसों ने सरकारी बैंकों को खोखला कर दिया
साल 2020 में बैंकों का जितना पैसा डूबा उसमें 88% रकम सरकारी बैंकों की थी। कमोबेश पिछले 10 साल से यही ट्रेंड चला आ रहा है। सरकारी बैंक मतलब आपकी बैंक, इन्हें पब्लिक बैंक भी कहा जाता है। जब सरकारी बैंक डूब जाते हैं, तो सरकार या RBI इनके मदद के लिए सामने आते हैं, जिससे सरकारी बैंक ग्राहकों के पैसों को लौटा सकें।
RBI या सरकारी वित्तीय संस्थाएं सरकारी बैंकों को मदद के लिए जो रकम देती हैं, वह कहां से आती है? आपके जेब से। यानी आपका पैसा लेकर नीरव और माल्या जैसे लोग भाग जाएं, फिर बैंक आप ही की जमा पूंजी को आपके जरूरत पर देने से मना कर दे। फिर सरकार आपके ही पैसों से बैंक की मदद करे, तब जाकर कहीं आपको आपका पैसा मिले। है न कमाल की बात! मोदी के सत्ता में आने के बाद, साल 2015-16 में NPA की रिकवरी 80 हजार 300 करोड़ हुई, जो 2015-16 के NPA का एक चौथाई भी नहीं था। हालांकि अगले साल से वसूली थोड़ी बढ़ा दी गई, लेकिन 2019-20 में ये फिर घट गई। कुल-मिलाकर NPA रिकवरी की रकम कुल NPA की तुलना में न के बराबर है।
मनमोहन की तुलना में मोदी सरकार कर्जदारों पर कई गुना मेहरबान रही
जो मनमोहन अपने आखिरी के 4 साल में नहीं कर सके, उसे मोदी ने आने के साथ पहले ही साल कर दिया। 2010-11 से लेकर 2013-14 के बीच 4 सालों में, मनमोहन सरकार में 44 हजार 500 करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हुआ। लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद पहले ही साल, यानी अकेले 2014-15 में 60 हजार करोड़ रुपए का लोन राइट-ऑफ हो गया। 2017-18 से तो जैसे मानो मोदी सरकार ने मेहरबान होने का बीड़ा ही उठा लिया हो। 2017-18 से लेकर 2019-20 के बीच, सिर्फ तीन सालों में मोदी सरकार में 6 लाख 35 हजार करोड़ से भी ज्यादा का लोन राइट-ऑफ हुआ।
अब आप सोच रह होंगे कि ये राइट-ऑफ क्या होता है? जब बैंकों को लगता है कि उन्होंने लोन बांट तो दिया, लेकिन वसूलना मुश्किल हो रहा है, तब बैंक ये वाला फंडा अपनाता है। गणित ऐसी उलझती है कि बैलेंस शीट ही गड़बड़ होने लगती है। ऐसे में बैंक उस लोन को ‘राइट-ऑफ’ कर देता है, यानी बैंक उस लोन अमाउंट को बैलेंस शीट से ही हटा देता है। यानी गया पैसा बट्टे खाते में। रिजर्व बैंक (RBI) के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी बैंकों ने साल 2010 से कुल 6.67 लाख करोड़ रुपए के कर्जों को राइट ऑफ किया है। निजी सेक्टर के बैंकों ने इसी दौरान 1.93 लाख करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया है।