किसानों की अनदेखी कर आत्मनिर्भर भारत का सपना बेमानी
lala ji
किसानों की अनदेखी कर क्या आत्मनिर्भर भारत के सपनों को साकार किया जा सकता है? आखिर कौन सा डर है, जिसने खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों को पुलिस के लाठी-डंडे खाकर, खून बहाकर भी सरकार (Govt) से भिड़ने सड़क पर उतार दिया है? क्यों देश के सूबों, दिल्ली की सड़कों से लेकर संसद तक घमासान मचा हुआ है? आखिर बाजार और विकास की जुगलबंदी से तैयार सरकार के वह कौनसे ऐतिहासिक सुधार वाले अध्यादेश हैं, जिन्हें किसान अपने अस्तित्व और अस्मिता पर खतरे के रूप में देखकर आगबबूला हो पड़े हैं? क्या केन्द्र और राज्यों की सरकारें किसानों का गुस्सा झेल पाएंगी? यह वो तमाम सवाल हैं, जिन्हें देश जानने के साथ समाधान चाहता है.
आपने देखा होगा कि हरियाणा के कुरूक्षेत्र में ट्रैक्टर-ट्राली के साथ हजारों की शक्ल में आंदोलन कर रहे किसानों को, जो पुलिस की लाठी से लहुलुहान होकर भी न झुकने को तैयार थे, न रुकने को. ऐसे ही विरोध प्रदर्शन, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, यूपी और तमिलनाडु समेत कई राज्यों के गांवों, कस्बों, तहसीलों, मंडिंयों से लेकर जिला मुख्यालयों पर लगातार चल रहे हैं. वहीं युवा किसान फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, यू-ट्यूब के माध्यम से आंदोलन को पूरे देश में फैला रहे हैं. दरअसल किसानों का ये सारा गुस्सा संसद में विधेयक की शक्ल में सोमवार को पेश किए गए उन तीन अध्यादेशों के विरोध में है, जिन्हें सरकार ऐतिहासिक कृषि सुधार का नाम दे रही है. वहीं देश के कई दर्जन किसान संगठन और कृषि विशेषज्ञ इसे किसान को बर्बाद करने वाला और कारोबारी, उद्योगपतियों तथा कारपोरेट कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला बता रहे हैं. किसान संगठनों का कहना है कि ऐसी स्थिति में किसानों के सामने तीन ही रास्ते बचते हैं,..विस्थापन, खुदकुशी या प्रतिरोध. हमने अभी प्रतिरोध का रास्ता चुना है, आगे देखते हैं क्या होता है.
कौन से हैं तीन अध्यादेश
बीते जून के महीने में किसानों जिंदगी बदल देने के दावे के साथ कृषि सुधारों के नाम पर केन्द्र सरकार ने तीन अध्यादेश कैबिनेट की बैठक में पारित किए. कहा गया है यह एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार बनाने की दिशा में यह सरकार का बड़ा कदम है.
किसानों की अनदेखी कर क्या आत्मनिर्भर भारत के सपनों को साकार किया जा सकता है? आखिर कौन सा डर है, जिसने खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों (Farmers) को पुलिस के लाठी-डंडे खाकर, खून बहाकर भी सरकार (Govt) से भिड़ने सड़क पर उतार दिया है? क्यों देश के सूबों, दिल्ली की सड़कों से लेकर संसद (Parliament) तक घमासान मचा हुआ है? आखिर बाजार और विकास की जुगलबंदी से तैयार सरकार के वह कौनसे ऐतिहासिक सुधार वाले अध्यादेश हैं, जिन्हें किसान अपने अस्तित्व और अस्मिता पर खतरे के रूप में देखकर आगबबूला हो पड़े हैं? क्या केन्द्र और राज्यों की सरकारें किसानों का गुस्सा झेल पाएंगी? यह वो तमाम सवाल हैं, जिन्हें देश जानने के साथ समाधान चाहता है.
पहलाः आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन कर जमाखोरी पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया. मतलब साफ है कि व्यापारी अब आलू, तेल, प्याज, अनाज, दालें, तिलहन जितना चाहें, जमा करके रख सकते हैं.
दूसराः एक नया कानून-कृषि उत्पादन और वाणिज्य(संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 लाया गया है, जो कहता है कि किसान अपनी फसल कृषि उपज मंडियों के बाहर भी निजी कारोबारियों को बेच सकता है. मंडी के भीतर बेचने पर 6 फीसदी टैक्स लगेगा, बाहर कहीं फसल का सौदा टैक्स फ्री होगा.
तीसराः यह अध्यादेश कान्ट्रैक्ट फार्मिंग याने अनुबंध आधारित खेती को कानूनी वैधता देता है. इसके तहत बड़े कारोबारी और निज कंपनियां किसानों से अनुबंध के आधार पर जमीन लेकर खुद खेती कर सकेंगी.
किसानों को इस बात का भय है
कि सरकार इन अध्यादेशों के जरिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की स्थापित व्यवस्था को खत्म कर रही है और यदि इसे लागू किया जाता है तो किसानों को व्यापारियों के रहम पर जीना पड़ेगा. किसानों का एक बड़ा डर यह भी है कि मंडियों से बाहर खरीदी, बिक्री की व्यवस्था लागू करना क्या देश में उन करीब 7 हजार कृषि उपज मंडियों की उस व्यवस्था को धीरे-धीरे खत्म करने की साजिश नहीं है, जहां उनकी फसल की कीमत एमएसपी के आसपास मिल जाया करती थी. इसके अलावा जमाखोरी को कानूनी मान्यता से किसान और उपभोक्ता दोनों को नुकसान पहुंचाने वाला होगा, जबकि कान्ट्रेक्ट फार्मिंग से अपनी ही जमीन पर किसान के मजदूर हो जाने का खतरा है.
क्या कहना है सरकार का
सोमवार को संसद में कृषि सुधारों संबंधी विधेयक पेश करते हुए केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा था कि अब किसान अपने घर से उपज सीधे कंपनियों और सहकारी समितियों को बेच सकते हैं. विधेयक में कहा गया है कि किसान किसे और किस दर पर अपनी उपज बेचे, यह वो खुद तय करेगा. तोमर ने यह भी सफाई दी कि एमएसपी याने न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा रहा. मंडियों के बाहर उपज की बिक्री और खरीद पर कोई टैक्स नहीं लगेगा, वहीं मंडियों में टैक्स लगता रहेगा. किसान को बाजार के खेल की समझ नहीं कृषि मामलों के जानकार व किसान नेता योगेन्द्र यादव जमीनी हकीकत बयां करते हुए सवाल करते हैं. क्या भारत का किसान इतना पढ़ा लिखा है, जो बाजार के खेल को समझ सके. बैंक या साहूकारों से कर्ज लेकर फसल उगाने वाले किसान के पास क्या पर्याप्त पूंजी रहती है, जो वह बाजार की स्थिति का आकलन कर सके या अपनी फसल को बेचने के लिए रोक कर इंतजार कर सके. मौजूदा हालातों में तो कृषि उपज मंडियों में एमएसपी पर उसके अनाज का बिकना ही सबसे बड़ी राहत की बात होती है. यह सच है कि किसान मंडियों की व्यवस्थाओं से संतुष्ट नहीं रहते, लेकिन सरकार के नए अध्यादेश से बची-खुची व्यवस्थाएं भी ध्वस्त हो जाएंगी. किसान व्यापारियों के रहमो-करम पर जीने को मजबूर हो जाएगा. नया अध्यादेश कहता है कि बड़े उद्योग सीधे किसानों से उपज की खरीद कर सकेंगे, लेकिन वह यह नहीं बताता कि जिन किसानों के पास मोल-भाव करने की क्षमता नहीं है, उन्हें फायदा कैसे मिलेगा. मंडियां अपना वजूद खो देंगी राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के अध्यक्ष और मप्र से ताल्लुक रखने वाले किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्काजी ने हमसे बातचीत में कहा 'सरकार की व्यवस्था से यह आशंका जन्म लेती है कि अब मंडियों के अंदर खरीदी करने की बजाय टैक्स से बचने के लिए किसानों से बाहर खरीदी करेंगे. इस स्थिति में मंडियां जब अपना वजूद खो देंगी. भविष्य में यह हालात होंगे कि फिर कारोबारी अपने मनमुताबिक दामों पर किसानों से उनकी उपज खरीदेंगे. अभी तो मंडियों के अंदर फसल की नीलामी के वक्त कई खरीददारों के होने की वजह से मूल्यों में बढ़ोतरी होती हैं, किसान के सामने अपना माल उचित दाम पर बेचने का विकल्प होता है, जो बाद में नहीं बचेगा.' कृषि विशेषज्ञ दविंदर शर्मा के अनुसार 'सरकार को यह बात समझना चाहिए कि कारोबारी की प्रकृति फायदा कमाने के सिद्धांत पर काम करती है. इस बात की पूरी आशंका है कि कारोबारी अधिक उपज वाले राज्यों के किसानों से कम दामों पर अनाज खरीदेंगे और कम उत्पादन वाले राज्यों में ऊंचे दामों में ले जाकर बेचेंगे. कुल सरकार के नया अध्यादेशों का फायदा व्यापारियों को मिलेगा, लेकिन किसानों को नहीं. हमें बिहार समेत उन राज्यों से सबक लेना चाहिए, जहां एपीएमसी एक्ट नहीं है, वहां कृषि बाजारों को रेग्युलेट नहीं किया जाता और वहां किसानों को उनकी उपज का सही दाम नहीं मिल पाता है. शर्मा ने कहा 'बिहार में 2006 से एपीएमसी नहीं है और इसके कारण होता ये है कि ट्रेडर्स बिहार से सस्ते दाम पर खाद्यान्न खरीदते हैं और उसी चीज को पंजाब और हरियाणा में एमएसपी पर बेच देते हैं. कृषि की स्थिति देश में जहां 85 फीसदी से अधिक छोटे और मझोले किसान हैं, जिनके पास 5 एकड़ या उससे भी कम कृषि भूमि है. देश में औसत कृषि भूमि 0.6 हेक्टेयर है. किसान की इतनी ज्यादा उपज ही नहीं होती, कि वह बाजार फसल बेचने के लिए जा सके. किसान के हाल का अंदाजा इससे लगाइए कि कई बार वह अपने खेतों में अगली बुवाई के लिए इंतजाम करने के लिए अपनी उपज को बेचता है और आगे चलकर उसी उपज को बाजार से खरीदता है. अध्यादेश को लेकर कृषि विशेषज्ञ आमने-सामने दूसरा अध्यादेश आवश्यक वस्तुओं के जमा करने पर छूट को लेकर है. कृषि अर्थशास्त्री प्रो. अशोक गुलाटी अपने एक लेख में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन को एक सही कदम बताते हैं और कहते हैं कि आपातकालीन स्थितियों को छोड़कर खाद्य वस्तुओं के जमा पर रोक लगाने की जरूरत नहीं है. इसके उलट कृषि विशेषज्ञ दविंदर शर्मा का कहना है कि 'जमाखोरी को कानूनी मान्यता देने से सिर्फ व्यापारियों को फायदा होगा. जरा सोचिए जब प्याज के दाम बढ़ते हैं तो क्यों कहा जाता है कि जमाखोरी के कारण ऐसा हो रहा है, जिसे हम रिफॉर्म कह रहे हैं, वो अमेरिका और यूरोप में कई दशकों से लागू है और इसके बावजूद वहां के किसानों की आय में कमी आई है. वहां यह माडल फेल हो गया है. किसानों को वालमार्ट जैसी कंपनियों के सामने अपनी उपज का सही दाम पाने के लिए प्रदर्शन करना पड़ता है. अपनी ही जमीन पर मजदूर होने का खतरा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर विधेयक के रूप में पेश तीसरे अध्यादेश को लेकर भी विवाद है. सरकार का पक्ष है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी और उसके उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित होगी, जबकि कृषि विशेषज्ञ ऐसा नहीं मानते. किसान नेता कक्का जी कहते हैं 'इससे कारपोरेट खेती को बढ़ा मिलेगा और फायदा भी उन्हें ही होगा, किसानों को इसका कोई लाभ नहीं मिलने वाला. वहीं योगेंद्र यादव कहते हैं कि 'यह अध्यादेश देश में सालों से चली आ रही अनौपचारिक एग्रीमेंट ठेका या बंटाई की समस्या का कोई समाधान नहीं करता है. दविंदर शर्मा कहते हैं कि छोटा किसान बड़े खिलाड़ियों के सामने नहीं टिक पाएगा. उसे सुरक्षित करने का रास्ता सरकार को खोजना होगा. य़ह अध्यादेश कारपोरेट एग्रीकल्चर के तरफ ले जाने वाला है, जिसमें अपने खेत में किसान के मजदूर हो जाने का डर है. किसानों को मिला राजनैतिक दलों का साथ कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने जब यह विधेयक लोकसभा में पेश किए, तो विपक्ष ने सरकार के अध्यादेशों को किसान विरोधी बताया. कांग्रेस समेत कई विपक्षी सदस्यों ने अध्यादेशों का विरोध करते हुए कहा कि पूंजीपति और कंपनियां सुधारों के नाम पर कानूनों के जरिए किसान का दोहन करेंगी. राज्यों में किसानों का मंडी बाजार खत्म हो जाएगा. कृषि राज्य का विषय है तो कानून बनाने का अधिकार भी राज्यों को है. सरकार का कदम संघीय व्यवस्था के खिलाफ है. उधर, हजारों की तादाद में किसान कारपोरेट भगाओ-देश बचाओ, अपनी मंडी अपना दाम जैसे नारों के साथ संसद के मानसून सत्र के पहले दिन से ही जंतर-मंतर पर धरने पर जम गए हैं. किसानों की नाराजगी सत्ता को झुलसा भी सकती है. सरकारों के लिए यह चेतने का समय है. कहीं इन अध्यादेशों का हश्र मार्च 2015 में लाए गए भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक जैसा न हो, जिसके विरोध के बाद झुकी सरकार आज तक कोई भूमि सुधार कानून ला पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.