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यूक्रेन से विवाद में रूस का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा अमेरिका, पुतिन के सामने नहीं आएगी बाइडन की कोई चाल काम

नई दिल्ली। रूस और यूक्रेन के बीच का तनाव फिलहाल कम होता दिखाई नहीं दे रहा है। इस तनाव को बढ़ाने के पीछे जो एजेंडा काम कर रहा है उसमें एक है अपना व्यापारिक हित तो दूसरा है खुद को एक महाशक्ति के रूप में बनाए रखना। बीते दिन विद्रोहियों द्वारा यूक्रेन पर हमला किए जाने की खबर से हर किसी की धड़कनें बढ़ गई थीं। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक भी हुई थी जिसमें रूस के साथ अमेरिका और अन्य सदस्यों ने भी अपनी चिंता जाहिर की। आपको बता दें कि दो दिन पहले ही रूस ने एक वीडियो जारी किया था जिसमें रूसी टैंकों को यक्रेन की सीमा से वापस जाते दिखाया गया था। इसके बाद ऐसा लगने लगा था कि अब ये तनाव कम होने की शुरूआत है लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मौजूदा परिस्थिती में एक बार फिर से ये संकट गहराता दिखाई दे रहा है। लेकिन यहां पर सबसे बड़ा सवाल ये है कि यदि रूस यूक्रेन में युद्ध हुआ तो अमेरिका कितना यूरोपीय देशों का साथ दे सकेगा। एक और सवाल ये भी है कि इस जंग में किस का पलड़ा अधिक भारी है।

रूस के दम पर टिका यरोप

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर अनुराधा शिनोए मानती हैं कि इन सवालों का जवाब कुछ अहम बातों में छिपा है। उनका कहना है कि जर्मनी और फ्रांस यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। वहीं लगभग समूचा यूरोप ही कई सारी चीजों के लिए रूस पर निर्भर करता है। इसमें तेल और गैस सबसे अहम हैं। जर्मनी रूस की गैस और तेल का सबसे बड़ा खरीददार है। इसके बाद फ्रांस का नाम आता है। इनके अलावा यूरोप के सभी देश रूस की गैस और तेल का उपयोग करते हैं। रूस पहले ये सप्लाई यूक्रेन से गुजरने वाली पाइपलाइन से करता था। इसके एवज में यूक्रेन को एक मोटी रकम की अदायगी रूस से होती थी। पुरानी हो चुकी इस लाइन से रूस को नुकसान भी उठाना पड़ता था। इसके लिए रूस ने नॉर्ड स्ट्रीम 2 को समुद्र के नीचे बिछाया। हालांकि इससे यूक्रेन को रूस से होने वाली कमाई खत्म हो गई।

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रूस का पलड़ा भारी

तनाव के बीच भले ही आज कुछ यूरोपीय देश अमेरिका का साथ दे रहे हैं लेकिन ये एक हकीकत है कि रूस का पलड़ा कई मायनों में भारी है। अमेरिका भले ही ये कह रहा है कि युद्ध छिड़ने की सूरत में वो रूस की इस पाइपलाइन को रोक देगा और रूस पर अधिक कड़े प्रतिबंध लगा देगा। लेकिन एक हकीकत ये भी है कि वो ऐसा न तो कर सकता है और न ही उसको ऐसा कोई देश करने ही देगा। किसी भी सूरत में जर्मनी या फ्रांस इसका समर्थन कर अपने विकास के पहिए को रोकने या उसको किसी भी तरह से बाधित करने की इजाजत नहीं देगा। यदि ऐसा हुआ तो इसकी कीमत रूस को कम और पूरे यरोप को अधिक उठानी होगी। रही बात प्रतिबंधों की तो उसका सामना रूस पहले से ही करता आ रहा है। एक सच्चाई ये भी है कि यूक्रेन भी खुद को युद्ध में नहीं झोंकना चाहता है। ऐसी सूरत में उसकी अर्थव्यवस्था चरमराने का खतरा अधिक होगा। आपको यहां पर ये भी बता दें कि यूक्रेन रूस के खेले दांव में बुरी तरह से घिरा हुआ है। बेलारूस, जार्जिया और क्रीमिया में रूस की फौज पहले से ही मौजूद है।

सभी के अपने हित

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दूसरी तरफ यूक्रेन की रक्षा की बात करने वाले नाटो की ही यदि बात करें तो उसमें भी अमेरिका समेत यूरोप के दूसरे देशों की सेनाएं इसमें शामिल हैं, जिनके हित अपने देशों से जुड़े हैं। वहीं ताकत की बात करें तो रूस इतना कमजोर भी नहीं है जितना उसे दिखाने की कोशिश की जा रही है। वर्तमान में सभी देशों के अपने व्यापारिक हित हैं जिनसे वो पीछे नहीं हट सकते हैं। अमेरिका भी अपने फायदे के लिए इस तनाव को बढ़ाए रखना चाहता है। वो यूरोप में अपने तेल और गैस की आपूर्ति करना चाहता है, साथ ही वो रूस पर दबाव बनाकर और प्रतिबंध लगाकर उसको कमजोर कर खुद को विश्व की महाशक्ति के रूप में बरकरार रखना चाहता है। इन बातों की सच्चाई इन बातों से भी जाहिर होती है कि फ्रांस, जर्मनी समेत दूसरे देश इस मामले को बातचीत से सुलझाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।

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