दुनियाभर में कोरोना के चलते सबसे ज्यादा गरीब भारत में ही बढ़े हैं। Pew रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। इसके मुताबिक कोरोना के चलते दुनियाभर में मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या कम हुई है और गरीबों की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट में रोज 2 डॉलर यानी 150 रुपए कमाने वाले को गरीब और 750 से 1500 रुपए कमाने वाले को मध्यमवर्गीय की कैटेगरी में रखा गया था।
इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मध्यमवर्गीय लोगों की संख्या में 3.2 करोड़ की गिरावट भी हुई है। भारत में फिलहाल गरीबी की स्थिति-
गरीबी के चलते प्रदूषण और मानसिक रोगों का भी शिकार बनते हैं लोग
इतना ही नहीं गरीब लोगों को, अमीरों के मुकाबले अधिक प्रदूषण का सामना भी करना पड़ता है। हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स ने दिल्ली के दो बच्चों की जिंदगी में एक दिन के वायु प्रदूषण का अध्ययन करके बताया था कि गरीब इलाके में रहने से 4 गुना ज्यादा वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है।
ब्रिटेन के हेल्थ फाउंडेशन में डायरेक्टर ऑफ हेल्थ जो बीबी के मुताबिक गरीबी लगातार तनाव की वजह भी बन सकती है। यह मानसिक स्वास्थ्य और रिश्तों के लिए खतरनाक हो सकती है। लंबे समय में इसके गंभीर मनोवैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं। खासकर जब बचपन में ही दिमाग पर इसका प्रभाव हुआ हो।
भारत में गरीब से मध्यमवर्गीय बनने में लगता है 7 पीढ़ी का समय
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) की ग्लोबल सोशल मोबिलिटी रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत के किसी गरीब परिवार को मिडिल क्लास में आने में 7 पीढ़ियों का समय लग जाता है। इसी स्टडी में पाया गया है कि जिन देशों में लोग जितनी जल्दी खुद को गरीबी से बाहर निकालने में सक्षम हैं, वहां अमीर और गरीब के बीच का अंतर भी उतना ही कम है।
आखिर क्या है गरीबी?
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अर्थ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर जेफ्री सैश कहते हैं, ‘गरीबी का मतलब रोजमर्रा की जिंदगी के लिए जरूरी चीजों की कमी है। जैसे वह गरीब है जिसे खाना, पानी और आम चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं मिल पा रहीं।’
लेकिन इन पैमानों के साथ वर्ल्ड इकोनाॅमिक फोरम (WEF) जैसी संस्थाएं आज गरीबी की माप के लिए कई अन्य जरूरी पैमानों पर भी ध्यान देती हैं। ये पैमाने हैं-
- गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की उपलब्धता
- टेक्नोलॉजी तक पहुंच
- काम के अवसर, सैलरी और काम का ढंग
- सामाजिक सुरक्षा
गरीबों के लिए मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करना सरकार का काम
ऐसे समय में सरकार का कर्तव्य होता है कि वह गरीब जनता के लिए मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित करे। भारत में NFSA के तहत लोगों को भोजन की गारंटी दी जाती है। इसी तरह पानी के लिए सरकार नल-जल योजना के तहत हर घर तक पानी पहुंचाने की योजना चला रही है। जबकि आयुष्मान भारत कार्यक्रम के तहत सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है।
हालांकि भारत में गरीबों के बढ़ने के बावजूद हाल ही में नीति आयोग की ओर से NFSA के तहत सरकार को 67% जनता को अनाज उपलब्ध कराने के बजाय 50% जनता को ही अनाज देने का सुझाव भी दिया गया है। जिसका गरीबों पर बुरा प्रभाव हो सकता है।
सरकार को गरीबी की समझ ही नहीं!
नोबेल विजेला अर्थशास्त्रियों अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की जोड़ी के मुताबिक गरीबी आपको एक मूर्खतापूर्ण दुष्चक्र में डाल देती है। वे लिखते हैं, ‘गरीब कुछ पैसे बचाते हैं, लेकिन कर्ज लेकर काम चलाते हैं। वे बचपन में जानलेवा बीमारियों से बचने के लिए वैक्सीनेशन भी नहीं करा पाते और बाद में जिंदगी भर दवाओं पर पैसे खर्च करते हैं। वे जिंदगी में कई सारे काम शुरू करते हैं, लेकिन किसी में भी सफल नहीं होते।’
ये दोनों ही अर्थशास्त्री इसके लिए सरकारों की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। और कहते हैं, ‘गरीबों के लिए बनी सारी नीतियां इसलिए फेल हो जाती हैं क्योंकि सरकारों को गरीबी की समझ ही नहीं है! यही वजह है कि गरीब अपनी जिंदगीभर की कमाई का ज्यादातर हिस्सा खाने, ईंधन और बिजली पर खर्च कर देते हैं।
‘सभी बराबर होंगे तो ठप हो जाएगा समाज का कामकाज?
भारत में तेजी से बढ़ी गरीबी के साथ गरीबी को लेकर विकासशील समाजों की सोच भी एक समस्या है। जिसके चलते लोगों को गरीबी से निकालने का गंभीर प्रयास नहीं किया जाता।दक्षिण अमेरिका के समाजविज्ञानी ऑस्कर गार्डियोला रिवेरा कहते हैं, ‘लंबे समय से माना जाता रहा है कि अगर कुछ लोग गरीब नहीं होंगे तो मजदूरी, सफाई और छोटे-मोटे काम कौन करेगा। इसलिए इसे दुनिया का कामकाज चलाने के लिए एक जरूरी बुराई माना जाने लगा और लोगों को इससे निकालने के लिए गंभीर प्रयास नहीं हुए।’